Rajesh Saini

लोग हमसे मिल के क्या ले जायेंगे?
सिर्फ़ जीने के अदा ले ले जाएँगे
दो घड़ी बैठेंगे तेरे पास हम
और बातो का मजा ले जाएँगे ।

Friday, November 7, 2008

ख्वाहिशों में अपना दिल न लगाओ-हिंदी शायरी

आदमी की ख्वाहिशें
उसे जंग के मैदान पर ले जातीं हैं
कभी दौलत के लिए
कभी शौहरत के लिए
कभी औरत के लिए
मरने-मारने पर आमादा आदमी
अपने साथ लेकर निकलता है हथियार
तो अक्ल भी साथ छोड़ जाती है
ख्वाहिशों के मकड़जाल में
ऐसा फंसा रहता आदमी जिंदगी भर
लोहे-लंगर की चीजों का होता गुलाम
जो कभी उसके साथ नहीं जातीं हैं
जब छोड़ जाती है रूह यह शरीर
तो समा जाता है आग में
या दफन हो जाता कब्र में
जिन चीजों में लगाता दिल
वह भी कबाड़ हो जातीं हैं
ख्वाहिशें भी एक शरीर से
फिर दूसरे शरीर में घर कर जातीं हैं
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ख्वाहिशों में अपना दिल न लगाओ
वह कभी यहां तो कभी वहां नजर आतीं हैं
एक जगह हो जाता है काम पूरा
दूसरी जगह नाच नचातीं हैं
किसी को पहुंचाती हैं शिखर पर
किसी को गड्ढे में गिरातीं हैं

अपने दिल को कहाँ बहलाएँ हम-हिंदी शायरी

मन जिधर ले जाये उधर ही हम
रास्ते में अंधेरा हो या रौशनी
हम चलते जायें पर रास्ता
होता नही कभी कम

अपनी ओढ़ी व्यग्रता से ही
जलता है बदन
जलाने लगती है शीतल पवन
महफिलों मे रौनक बहुत है
पर दिल लगाने वाले मिलते है कम
जहां बजते हैं
भगवान् के नाम पर बजते हैं जहाँ ढोल
वहीं है सबसे अधिक होती है पोल
अपने दिल को कहां बहलाएं हम

खुशी हो या गम-हिंदी शायरी

अपनी धुन में चला जा रहा था
अपने ही सुर में गा रहा था
उसने कहा
‘तुम बहुत अच्छा गाते हो
शायद जिंदगी में बहुत दर्द
सहते जाते हो
पर यह पुराने फिल्मी गाने
मत गाया करो
क्योंकि इससे तुम्हारे दर्द पर
किसी को रोना नहीं आयेगा
क्यों नहीं नये गाने गाते
शोर सुनकर लोगों के
हृदय में भावनाओं का ज्वार आयेगा
ऐसे ही आंसू बहाने लगेंगे
समझ में कुछ नहीं आयेगा
तुम्हारें अंदर खुशी हो या गम
उसे बेचने का काम शुरू कर दो
क्यों कमाने से हाथ धोये जाते हो
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Saturday, October 11, 2008

श्रीगीता तो ज्ञान सहित विज्ञान से परिपूर्ण ग्रन्थ है-आलेख


धर्म को लेकर अब अधिक चर्चा हो रही है पर उसके मूल तत्वों के बारे में कम उससे मानने वाले लोगों के आचरण पर ही अधिक तथ्य रखे जा रहे हैं। आजकल तो चारों तरफ बहस हो रही है और एकता करने के लिये शोर मचाया जा रहा है। वाद और नारों के जाल में फंसे बुद्धिजीवियों की अपनी सीमायें हैं और भारतीय अध्यात्म ज्ञान से रहित होते हुए भी धर्म पर ऐसे बोलते हैं जैसे कि उनका लिखा या बोला ही अंतिम सत्य है। अभी एक जगह तीन धर्मों की पुस्तकों की चर्चा करते उनको भूल जाने और आपस में भाईचारा लाने की बात एक नारे के रूप में कही गयी-इसमें भारतीय अध्यात्म की मुख्य स्त्रोत गीता का नाम भी था। दो अन्य धर्मों की पुस्तकों का नाम भी था पर यहां हम केवल श्रीगीता के मसले पर ही चर्चा करेंगे क्योंकि आजकल जो वातावरण है कि उसमें किसी दूसरे धर्म की चर्चा करने पर वाद प्रतिवाद का जो दौर शुरु होता है तो वह किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता।
श्रीगीता अन्य धार्मिक ग्रंथों के मुकाबले शब्दों के मामले में कम है पर इस जीवन सृष्टि का सभी तत्वों का संपूर्ण सार केवल उसी में है। यह दुनियां की एकमात्र ऐसा ज्ञान संग्रह है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान की भी चर्चा है। इसे पढ़ने और समझने वाले ज्ञानी ही जानते हैं कि अत्यंत सरल शब्दों में जीवन और सृष्टि के रहस्यों का वर्णन करने वाले इस ग्रंथ में कोई लंबा चैड़ा ज्ञान नहीं है जो किसी के समझ मेें नही आये पर इसके महत्व को प्रतिपादित करने वाले ही इसके असली संदेश गोल कर जाते हैं ताकि वह सुनने वालों की नजरों में ज्ञानी भी कहलायें और दूसरा कोई ज्ञानी बनकर उनको चुनौती भी न दे।

जहां तक श्रीगीता के ज्ञान का प्रश्न है तो उसमें
1.कहीं भी हिंसा का समर्थन नहीं किया गया।
2.उसमें मनुष्य को योग और भक्ति के द्वारा स्वयं ही शक्ति संपन्न होने की प्रेरणा दी गयी है।
3.उसमें विज्ञान का महत्व प्रतिपादित किया गया है ताकि धर्म की रक्षा हो सके। एक तरह से मानव समाज के नित नये स्वरूपों के साथ जुड़ने के लिये प्रेरित किया गया है क्योंकि उसमें वर्णित ज्ञान की रक्षा तभी संभव है।
4.व्यक्ति किस और कितने तरह के होते हैं इसके लिये उसमें पहचान बताई गयी है और श्रेष्ठ मनुष्य के लिये जो मानदंड बताये गये हैं वह एक आईने का काम करते हैं।

उसमें कहीं भी
1. चमत्कारों के आकर्षण का वर्णन नहीं है
2. मनुष्य द्वारा मनुष्य को हेय देखने का संदेश नहीं दिया गया।
3.किसी प्रकार की पूजा पद्धति या देवता की उपासना या किसी व्यक्ति की महिमा का बखान नहीं किया गया। न ही किसी कर्मकांड या रूढि़यों की स्थापना उसमें की गयी है।
श्रीगीता की किसी अन्य पुस्तक से तुलना करना ही हैरानी की बात है। इस तरह वाद पर चलने और नारे लगाने वाले केवल अखबार पढ़ कर ही अपनी विचारधारा बना लेते हैं। देखा जाये तो अन्य सभी धार्मिक पुस्तक से श्रीमद्भागवत गीता की तुलना ही नहीं हैं। जिन लोगों को लगता है कि श्रीगीता का भुलाने से राष्ट्र में एकता स्थापित हो जायेगी तो उनको यह भी समझ लेना चाहिये कि बात केवल पुस्तक के नाम की नहीं बल्कि उसके ज्ञान उसे धारण करने की भी है। अन्य धार्मिक पुस्तकें इतनी बड़ी हैं कि आज के संघर्षमय युग में किसी को उसे फुरसत ही नहीं है और जो पढ़ते हैं वह अपने हिसाब से दूसरों को उनके निजी जीवन में निर्णय लेने के लिये पे्ररित करते हैं। कई बार तो पारिवारिक विवादों में भी उनसे उदाहरण लिये जाते हैं। कई धार्मिक पुस्तकें तो केवल समाज को सांसरिक संबंधों के बारे में संदेश देती हैं और साथ ही उनके सामने कर्मकांडों के निर्वहन की शर्त भी रखती हैं जबकि श्रीगीता के संदेशों में ऐसा नहीं है।
समस्या श्रीगीता को भूलने की नहीं बल्कि उसका ज्ञान धारण न करना ही हैं। धार्मिक पुस्तकों पर प्रतिकूल टिप्पणियां होने से सामान्य आदमी बौखला जाता है और अल्पज्ञानी उसमें से ज्ञान के अंश निकालकर उसके महत्व का प्रतिपादित करता है पर जो ज्ञानी हैं वह केवल सुनता है और पूछने पर यही कहता है कि -‘पहले पढ़ लो फिर आकर बात करना।’
श्रीगीता के ज्ञान के बाद महाभारत युद्ध हुआ था पर उसमें श्रीभगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि यह ‘युद्ध तू मेरे लिये कर और उसका परिणाम मेरे ऊपर छोड़’
उन्होंने अपना वादा निभाया। अर्जुन को पाप का भागी नहीं बनने दिया क्योंकि उनके उस भक्त ने अपनी देह का त्याग किसी का तीर खाकर नहीं छोड़ी, जबकि भगवान श्रीकृष्ण ने परमधाम गमन से पहले उसी हिंसा के प्रतिकार में एक बहेलिये का तीर अपने पांव पर लेकर यह स्पष्ट संदेश मानव समाज को दिया कि अहिंसा ही भविष्य की सभ्यताओं के लिये श्रेष्ठ मार्ग है। उन्होंने महाभारत में स्वयं कहीं भी हिंसा नहीं की पर उसका परिणाम स्वयं ही लेकर यह साबित किया कि वह एक योगेश्वर थे।
सच तो यह है कि लोग केवल भगवान श्रीकृष्ण का नाम लेते हैं पर उनके जीवन चरित्र से कुछ नहीं सीखते। लोगों को अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने नकारा बना दिया है। वह केवल बहसें करते हैं वह भी अर्थहीन। किसी निष्कर्ष पर तो आज तक कोई पहुंचा ही नहीं है-जिस तरह की बहसें चल रही हैं उससे तो लगता भी नहीं है कि किसी नतीजे पर पहुंचेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीगीता के उपदेशों का प्रचार केवल अपने भक्तों में ही करने का निर्देश दिया है क्योंकि उस पर केवल चलने के लिये पहले यह जरूरी है कि उनकी निष्काम भक्ति की जाये।
आखिरी बात यह है कि अन्य धार्मिक ग्रंथ कथित रूप से कहते हैं कि ‘प्रेम करो’,‘अहिंसा धर्म का पालन करो’, परमार्थ करो और अपनी नीयत साफ रखो’, पर वह यह नहीं बताते है कि पांच तत्वों से बनी इस देह में जो शारीरिक,मानसिक और वैचारिक विकार एकत्रित होते हैं उनका निष्कासन कैसे हो? जब तक यह विकार है आदमी प्रेम कर ही नहीं सकता, हिंसा तो हमेशा उसके मन में रहेगी और परमार्थ भी करेगा तो दिखावे का।

श्रीगीता उसका उपाय बताती है कि उसके लिये लिये योगसाधना, ध्यान और गायत्री मंत्र का जाप करो। उससे शरीर के विकार निकल जाते हैं और आदमी स्वतः भी निष्काम भक्ति के भाव को प्राप्त होता है। उसे प्रेम करने के लिये सीखने की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही परमार्थ करने के लिये वह किसी के संदेश का इंतजार नहीं करता। दूसरे धर्म ग्रंथो में आंखों से अच्छा देखने, कानों से सुनने और मन में अच्छा विचार करने का उपदेश देते हैं पर श्रीगीता तो मनुष्य के उस मन पर नियंत्रण करने का तरीका बताती है जिससे वह स्वचालित ढंग से इन सब बातों के लिये प्रेरित होता है। उसे किसी से कुछ सीखने या सुनने की आवश्यकता नहीं होती।

बाकी धर्म ग्रंथों की क्या महत्ता है यह तो उनको पढ़ने वाले जाने पर श्रीगीता को पढ़ने वाले इसके बारे में प्रतिकुल टिप्पणी होने पर भी नहीं बौखलाते क्योंकि वह जानते हैं कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। स्पष्ट है कि जिस वातावरण में सामान्य आदमी रह रहा है, भोजन कर रहा है या पानी पी रहा है उसका उस प्रभाव होगा उसी के अनुसार ही वह दूसरे से अनुकूल प्रतिकूल व्यवहार करेगा। रहने वाले तो श्रीगीता का अध्ययन करने वाले भी कोई आसमान में नहीं रहते वह भी यहां पर्यावरण प्रदूषण झेल रहे हैं पर वह जब अपने सामने समस्याओं का जंगल देखते हैं तो यही कहते हैं कि ‘मुझे अपने पर नियंत्रण रखना चाहिये दूसरा ऐसा करे यह जरूरी नहीं है क्योंकि उसका ज्ञान कितना है उतना ही तो वह करेगा।
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Friday, October 10, 2008

जैसा ज्ञान, वैसा बखान-हास्य व्यंग्य

जैसा ज्ञान, वैसा बखान-हास्य व्यंग्य
सिनेमा या टीवी के पर्दे पर चुंबन का दृश्य देखकर लोगों के मन में हलचल पैदा होती है। अगर ऐसे में कहीं किसी प्रसिद्ध हस्ती ने किसी दूसरी हस्ती का सार्वजनिक रूप से चंुबन लिया और उसकी खबर उड़ी तो हाहाकार भी मच जाता है। कुछ लोग मनमसोस कर रह जाते हैं कि उनको ऐसा अवसर नहंी मिला पर कुछ लोग समाज और संस्कार विरोधी बताते हुए सड़क पर कूद पड़ते हैं। चुंबन विरोधी चीखते हैं कि‘यह समाज और संस्कार विरोधी कृत्य है और इसके लिये चुंबन लेने और देने वाले को माफी मांगनी चाहिये।’

अब यह समझ में नहीं आता कि सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना समाज और संस्कारों के खिलाफ है या अकेले में भी। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना कठिन है कि कौन ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी का चुंबन नहीं लेता। अरे, मां बाप बच्चे का माथा चूमते हैं कि नहीं। फिर अकेले में कौन किसका कैसे चुंबन लेता है यह कौन देखता है और कौन बताता है?

सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने पर लोग ऐसे ही हाहाकार मचा देते हैं भले ही लेने और देने वाले आपस में सहमत हों। अगर किसी विदेशी होंठ ने किसी देशी गाल को चुम लिया तो बस राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए खतरा और समाज और संस्कार विरोधी और भी न जाने कितनी नकारात्मक संज्ञाओं से उसे नवाजा जाता है। कहीं कहीं तो जाति,धर्म और भाषा का लफड़ा भी खड़ा हो जाता है। पश्चिमी देशों में सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना शिष्टाचार माना जाता है जबकि भारत में इसे अभी तक अशिष्टता की परिधि में रखा जाता है। यह किसने रखा पता नहीं पर जो रखते हैं उनसे बहस करने का साहस किसी में नहीं होता क्योंकि वह सारे फैसले ताकत से करते हैं और फिर समूह में होते हैं।

इतना तय है कि विरोध करने वाले भी केवल चुंबन का विरोध इसलिये करते हैं कि वह जिस सुंदर चेहरे का चुंबन लेता हुआ देखते हैं वह उनके ख्वाबों में ही बसा होता है और उनका मन आहत होता है कि हमें इसका अवसर क्यों नहीं मिला? वरना एक चुंबन से समाज,संस्कृति और संस्कार खतरे में पड़ने का नारा क्यों लगाया जाता है।
दूसरे संदर्भ में इन विरोधियों को यह यकीन है कि समाज में कच्चे दिमाग के लोग रहते हैं और अगर इस तरह सार्वजनिक रूप से चुंबन लिया जाता रहा तो सभी यही करने लगेंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो पूरे समाज को कच्ची बुद्धि का समझते हैं।

फिल्मों में भी नायिका के आधे अधूरे चुंबन दृश्य दिखाये जाते हैं। नायक अपना होंठ नायिका के गाल के पास लेकर जाता है और लगता कि अब उसने चुुंबन लिया पर अचानक दोनों में से कोई एक या दोनों ही पीछे हट जाते हैं। इसके साथ ही सिनेमाहाल में बैठे लड़के -जो इस आस में हो हो मचा रहे होते हैं कि अब नायक ने नायिका का चुंबन लिया-हताश होकर बैठ जाते हैं। चुम्मा चुम्मा ले ले और देदे के गाने जरूर बनते हैं नायक और नायिक एक दूसरे के पास मूंह भी ले जाते हैं पर चुंबन का दृश्य फिर भी नहीं दिखाई देता।

आखिर ऐसा क्यों? क्या वाकई ऐसा समाज और संस्कार के ढहने की वजह से है। नहीं! अगर ऐसा होता तो फिल्म वाले कई ऐसे दृश्य दिखाते हैं जो तब तक समाज में नहीं हुए होते पर जब फिल्म में आ जाते हैं तो फिर लोग भी वैसा ही करने लगते हैं। फिल्म से सीख कर अनेक अपराध हुए हैं ऐसे मेंं अपराध के नये तरीके दिखाने में फिल्म वाले गुरेज नहीं करते पर चुंबन के दृश्य दिखाने में उनके हाथ पांव फूल जाते हैंं। सच तो यह है कि चूंबन जब तक लिया न जाये तभी तक ही आकर्षण है उसके बाद तो फिर सभी खत्म है। यही कारण है कि काल्पनिक प्यार बाजार में बिकता रहे इसलिये होंठ और गाल पास तो लाये जाते हैं पर चुंबन का दृश्य अधिकतर दूर ही रखा जाता है।

यह बाजार का खेल है। अगर एक बार फिल्मों से लोगों ने चुंबन लेना शुरू किया तो फिर सभी जगह सौंदर्य सामग्री की पोल खुलना शुरू हो जायेगी। महिला हो या पुरुष सभी सुंदर चेहरे सौंदर्य सामग्री से पुते होते हैं और जब चुंबन लेंगे तो उसका स्पर्श होठों से होगा। तब आदमी चुंबन लेकर खुश क्या होगा अपने होंठ ही साफ करता फिरेगा। सौंदर्य प्रसाधनों में केाई ऐसी चीज नहीं हेाती जिससे जीभ को स्वाद मिले। कुछ लोगों को तो सौदर्य सामग्री से एलर्जी होती और उसकी खुशबू से चक्कर आने लगते हैं। अगर युवा वर्ग चुंबन लेने और देने के लिये तत्पर होगा तो उसे इस सौंदर्य सामग्री से विरक्त होना होगा ऐसे में बाजार में सौंदर्य सामग्री के प्रति पागलपन भी कम हो जायेगा। कहने का मतलब है कि गाल का मेकअप उतरा तो समझ लो कि बाजार का कचड़ा हुआ। याद रखने वाली बात यह है कि सौदर्य की सामग्री बनाने वाले ही ऐसी फिल्में के पीछे भी होते हैं और उनका पता है कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं है जो जीभ तक पहुंचकर उसे स्वाद दे सके।

कई बार तो सौंदर्य सामग्री से किसी खाने की वस्तु का धोखे से स्पर्श हो जाये तो जीभ पर उसके कसैले स्वाद की अनुभूति भी करनी पड़ती है। यही कारण है कि चुंबन को केवल होंठ और गाल के पास आने तक ही सीमित रखा जाता है। संभवतः इसलिये गाहे बगाहे प्रसिद्ध हस्तियों के चुंबन पर बवाल भी मचाया जाता है कि लोग इसे गलत समझें और दूर रहें। समाज और संस्कार तो केवल एक बहाना है।

एक आशिक और माशुका पार्क में बैठकर बातें कर रहे थे। आसपास के अनेक लोग उन पर दृष्टि लगाये बैठै थे। उस जोड़े को भला कब इसकी परवाह थी? अचानक आशिक अपने होंठ माशुका के गाल पर ले गया और चुंबन लिया। माशुका खुश हो गयी पर आशिक के होंठों से क्रीम या पाउडर का स्पर्श हो गया और उसे कसैलापन लगा। उसने माशुका से कहा‘यह कौनसी गंदी क्रीम लगायी है कि मूंह कसैला हो गया।’

माशुका क्रोध में आ गयी और उसने एक जोरदार थप्पड़ आशिक के गाल पर रसीद कर दिया। आशिक के गाल और माशुका के हाथ की बीचों बीच टक्कर हुई थी इसलिये आवाज भी जोरदार हुई। उधर दर्शक तो जैसे तैयार बैठे ही थे। वह आशिक पर पिल पड़े। अब माशुका उसे बचाते हुए लोगों से कह रही थी कि‘अरे, छोड़ो यह हमारा आपसी मामला है।’

एक दर्शक बोला-‘अरे, छोड़ें कैसे? समाज और संस्कृति को खतरा पैदा करता है। चुंबन लेता है। वैसे तुम्हारा चुंबन लिया और तुमने इसको थप्पड़ मारा। इसलिये तो हम भी इसको पीट रहे हैं।’

माशुका बोली‘-मैंने चुंबन लेने पर थप्पड़ थोड़े ही मारा। इसने चुंबन लेने पर जब मेरी क्रीम को खराब बताया। कहता है कि क्रीम से मेरा मूंह कसैला हो गया। इसको नहीं मालुम कि चुंबन कोई नमकीन या मीठा तो होता नहीं है। तभी इसको मारा। अरे, वह क्रीम मेरी प्यारी क्रीम है।’

तब एक दर्शक फिर आशिक पर अपने हाथ साफ करने लगा और बोला-‘मैं भी उस क्रीम कंपनी का ‘समाज और संस्कार’रक्षक विभाग का हूं। मुझे इसलिये ही रखा गया है कि ताकि सार्वजनिक स्थानों पर कोई किसी का चुंबन न ले भले ही लगाने वाला केाई भी क्रीम लगाता हो। अगर इस तरह का सिस्टम शुरु हो जायेगा तो फिर हमारी क्रीम बदनाम हो जायेगी।’

बहरहाल माशुका ने जैसे तैसे अपने आशिक को बचा लिया। आशिक ने फिर कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा न करने की कसम खाइ्र्र।

हमारा देश ही नहीं बल्कि हमारे पड़ौसी देशों में भी कई चुंबन दृश्य हाहाकर मचा चुके हैं। पहले टीवी चैनल वाले प्रसिद्ध लोगों के चुंबन दृश्य दिखाते हैं फिर उन पर उनके विरोधियों की प्रतिक्रियायें बताना नहीं भूलते। कहीं से समाज और संस्कारों की रक्षा के ठेकेदार उनको मिल ही जाते हैं।

वैसे पश्चिम के स्वास्थ्य वैज्ञानिक चुंबन को सेहत के लिये अच्छा नहीं मानते। यह अलग बात है कि वहां चुंबन खुलेआम लेने का शिष्टाचार है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे बुरा समझा जाता है। चुंबन लेना स्वास्थ्य के लिये बुरा है-यह जानकर समाज और संस्कारों के रक्षकों का सीना फूल सकता है पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि अमेरिकन आज भी आम भारतीयों से अधिक आयु जीते हैं और उनका स्वास्थ हम भारतीयों के मुकाबले कई गुना अच्छा है।

वैसे सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना अशिष्टता या अश्लीलता कैसे होती है इसका वर्णन पुराने ग्रंथों में कही नहीं है। यह सब अंग्रेजों के समय में गढ़ा गया है। जिसे कुछ सामाजिक संगठन अश्लीलता कहकर रोकने की मांग करते हैं,कुछ लोग कहते हैं कि वह सब अंग्रेजों ने भारतीयों को दबाने के लिये रचा था। अपना दर्शन तो साफ कहता है कि जैसी तुम्हारी अंतदृष्टि है वैसे ही तुम्हारी दुनियां होती है। अपना मन साफ करो, पर भारतीय संस्कृति के रक्षकों देखिये वह कहते हैं कि नहीं दृश्य साफ रखो ताकि हमारे मन साफ रहें। अपना अपना ज्ञान है और अलग अलग बखान है।
जहां तक चंबन के स्वाद का सवाल है तो वह नमकीन या मीठा तभी हो सकता है जब सौंदर्य सामग्री में नमक या शक्कर पड़ी हो-जाहिर है या दोनों वस्तुऐं उसमें नहीं होती।
दीपक भारतदीप

दुनियादारी इसी का नाम है-हिंदी शायरी

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
उनके जख्म पर लगाओं मरहम
वह फिर भी दिल में बदनीयती और
बुरे इरादे लिये होते हैं
लेते हैं अच्छा नाम
केवल लोगों को दिखाने के लिये
दिल में जमाने को लूटने के
उनके अरमान होते हैं
शरीर का इलाज तो किया जा सकता
पर उनको दवा देना है बेकार
जिनके दिल में खोटी नीयत और
बेईमानी के रोग लाइलाज होते हैं
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शादी से पहले
होते हैं आशिक और माशुका
बाद में बन जाते हैं मियां-बीवी
इश्क हो जाता है हवा
दुनियांदारी इसी का नाम है
जब जरूरतों की जंग
घर को बना देती है टीवी

ख्वाहिशों में अपना दिल न लगाओ-हिंदी शायरी

आदमी की ख्वाहिशें
उसे जंग के मैदान पर ले जातीं हैं
कभी दौलत के लिए
कभी शौहरत के लिए
कभी औरत के लिए
मरने-मारने पर आमादा आदमी
अपने साथ लेकर निकलता है हथियार
तो अक्ल भी साथ छोड़ जाती है
ख्वाहिशों के मकड़जाल में
ऐसा फंसा रहता आदमी जिंदगी भर
लोहे-लंगर की चीजों का होता गुलाम
जो कभी उसके साथ नहीं जातीं हैं
जब छोड़ जाती है रूह यह शरीर
तो समा जाता है आग में
या दफन हो जाता कब्र में
जिन चीजों में लगाता दिल
वह भी कबाड़ हो जातीं हैं
ख्वाहिशें भी एक शरीर से
फिर दूसरे शरीर में घर कर जातीं हैं
.................................
ख्वाहिशों में अपना दिल न लगाओ
वह कभी यहां तो कभी वहां नजर आतीं हैं
एक जगह हो जाता है काम पूरा
दूसरी जगह नाच नचातीं हैं
किसी को पहुंचाती हैं शिखर पर
किसी को गड्ढे में गिरातीं हैं

अपने दिल को कहाँ बहलाएँ हम

मन जिधर ले जाये उधर ही हम
रास्ते में अंधेरा हो या रौशनी
हम चलते जायें पर रास्ता
होता नही कभी कम

अपनी ओढ़ी व्यग्रता से ही
जलता है बदन
जलाने लगती है शीतल पवन
महफिलों मे रौनक बहुत है
पर दिल लगाने वाले मिलते है कम
जहां बजते हैं
भगवान् के नाम पर बजते हैं जहाँ ढोल
वहीं है सबसे अधिक होती है पोल
अपने दिल को कहां बहलाएं हम

मौत के डर बनाए जाते हैं

लोग बड़ी हस्ती बनने की
दौड़ में जुट जाते हैं
जो होते हैं अक्ल से लंगड़े
वह दर्शकों की भीड़ में बैठकर
ताली बजाए जाते हैं
अपने गम भुलाने के लिये
खुशियों के मनाने चैराहे पर देते धरना
आपस में झगड़ा कर वहां भी
अपने आंसू बहाये जाते हैं

देखते हैं मस्तराम ‘आवारा’
इतने ऊपर है चांद
पर उस पर लपकने के लिए
नीचे ही कई स्वांग रचाये जाते हैं
भागता आदमी जब थक जाता है
तब भी बैचेन रहता है कि
कहीं रौशनी उससे दूर न रह जाये
इसलिये अंधेरे के भय उसे सताये जाते हैं
अपने चिराग खुद ही जलाने की
आदत डाले रहते तो
क्यों गमों का गहरा समंदर
उनको डुबोये रहता
जहां जिंदगी तूफान झेलने की
ताकत रखती है
वहां मौत के डर बनाये जाते हैं

छिः भतीजी के मौसी-मौसाजी क्रिकेट देखते हैं

मैं बहुत दिन बाद दौरे से अपने घर लौटा। उस समय सुबह घड़ी में छह बजे थे। मेरी भतीजी घर के बाहर आंगन में बैठकर अपनी गर्दन घड़ी की तरह घुमा कर योगासन कर रही थी और भतीजा पास बैठकर अखबार पढ़ रहा था। मैं जैसे ही पोर्च से दरवाजा खोलकर दाखिल हुआ। दोनों ने मुझे देखा और भतीजी तत्काल बोली-‘चाचाजी आप इधर गली से घर के अंदर जाना।’

इससे पहले मैं कुछ कहता भतीजा बोला-‘इधर हाल में हमारे मौसा और मौसी सो रहे हैं। उनकी नींद टूट जायेगी।’

मुझे हंसी आई और मैने अपना बैग वहीं रख दिया और वही रखी दूसरी प्लास्टिक की चटाई पर बैठकर प्राणायाम करने लगा। हालांकि मैं अक्सर ऐसा नहंी करता पर जब सुबह बाहर जाकर सैर करने का अवसर नहीं मिलता तो यही करता हूं।

भतीजी बोली-‘‘क्या आप आराम नहीं करोगे।’’

मैने कहा-‘नहीं ट्रेन में सोता हुआ आया हूं।’’

मेरे संक्षिप्त जवाब उसे परेशान कर देते हैं। जब मैं खामोशी से प्राणायाम करने लगा तो वह बार-बार मुड़कर पीछे देखती। वह शायद अपने मौसी-मौसा के बारे में बताना चाहती थी और मैं उससे इस बारे में कुछ नहीं सुनना चाहता था। एक रात पहले ही मुझे भाई साहब से फोन पर पता लगा गया था कि पूरा परिवार उनके साथ मिलकर क्रिकेट मैच देख रहा था और मैं इसे लेकर ही उसकी मौसी की मजाक उड़ाने वाला था। यह तय बात थी इस पर नोकझोंक होनी थी और सुबह उससे बचने में ही मुझे सबकी भलाई लगी।

इतने में भाभी बाहर आयी और मुझे देखकर बोली-‘तुम कब आये भैया?’’
मैने कहा-‘पंद्रह मिनट पहले।’

भाभी बोलीं-‘भईया, तुम इधर हाल से अंदर मत आना। मेरी बहिन और बहनोई यहां सो रहे हैं। उनकी नींद न टूटे।’

मैने कहा-‘‘नहीं जाऊंगा। हां, अब यही संदेश देने के लिये भाईसाहब को भी भेज देना। वह एक बचे हैं जो यह बात बताने के लिये रह गये हैं। आपसे पहले यह दोनो तो कह ही चुके हैं।’

ऐसा लगा कि भाभी को गुस्सा आया पर शायद अपनी बहिन की उपस्थिति का ख्याल कर वह मुस्कराकर चली गयीं।
भतीजी की योग साधना में खलल पड़ना ही था। वह बोली-‘‘चाचाजी आप तो ऐसी बात करते हो कि गुस्सा आ जाता है। कल वह दोनों क्रिकेट मैच देख रहे थे। फिर बातचीत होती रही और वह देर से सो पाये। इसलिये कह रहे हैं।’

मैने कहा-‘‘छिः तुम्हारी मौसी और मौसाजी क्रिकेट मैच देखते हैं?

अभी तक मेरी तरफ पीठ किये भतीजी और भतीजा दोनो ही एकदम मूंह फेरकर मेरी तरफ बैठ गये। मैं अपना प्राणायाम करने लगा।

भतीजी ने मुझे पूछा-‘‘इसका क्या मतलब?’
मेने कहा-‘‘तुम्हारे पापा कहते हैं न कि अब क्रिकेट भले लोगों का खेल नहीं रहा। उसमें लोग दांव लगाते हैं।’’
भतीजी बोली-‘‘वह तो पहले कहते थे। कल तो वह खुद भी देख रहे थे। यह जरूर कह रहे थे कि मजा नहंी आ रहा।’
मैंने कहा-‘वह कभी सट्टा नहीं लगाते तो मजा कहां से आयेगा? इसमें मजा उसे ही आता है जो इस पर पैसा लगता है यानि जुआ खेलता है।’
भतीजी बोली-‘हमारी मौसी और मौसाजी ऐसा नहीं कर सकते।’
मैंने कहा-‘तू ने पूछा था? जब उठें तो पूछ लेना कितने का सट्टा खेला था।’
भतीजा बोला-‘आप तो ऐसे ही मौसी और मौसा की मजाक उड़ाते हो।’
मैं अंदर चला गया। भतीजी और भतीजा अपनी मौसी और मौसा पर मेरे आक्षेपों को नहीं पचा पाये और जाकर अपनी मां को बता दिया। भाभीजी मेरे पास आयी और बोली-‘‘आपसे किसने कहा कि मेरे बहनोई सट्टा खेलते हैं।’
मैंने कहा-‘‘भईया ही कहते हैं कि आजकल यह खेल सट्टेबाज देखते हैं।’
तब तक किसी तनाव की आशंका को टालने के लिये वहां पधारे भाई साहब बोले-‘‘वह तो पहले कहता था। हां, अब फिर इस खेल में लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है। सभी लोग थोडे+ ही सट्टा लगाते है। अधिकतर लोग तो मजे के लिए ही देखते हैं।
भतीजी बोली-‘‘हां, चाचाजी आप ऐसे ही किसी के बारे में कुछ भी कह देते हो।’
मैं चुप रह गया। भाई साहब की साली से अधिक मैं उनके साढ़ू से परिचित था क्योंकि वह मुझसे बड़ा था पर बचपन में कई बार मैं उसके घर गया था। अब भी उससे मेरी मित्रता थी।

भतीजी के मौसी मौसा दोनों उठकर हाल से बाहर आये तो उसके मौसा से मैंने उससे हाथ मिलाया फिर बातचीत में पूछ ही लिया-‘मैच पर कोई दांव वगैरह लगाते हो कि नहीं।’
वह बोला-‘हम कहां ऐसे दांव खेलते हैं। हां, कभी कभार हजार पांच सौ की शर्त लगाते हैं।’
मैंने कहा-‘शर्त भी तो एक तरह का जुआ है।
भाई साहब की साली बोली-‘‘मना करती हूं पर मानते ही नहीं।’
मेरी भाभी, भतीजी और भतीजे का चेहरा फक हो रहा था। मैंने उससे कहा-‘‘हां, जब जीतते होंगे तब कुछ नहीं कहती होगी। जब हारते होंगे तब चिल्लाती होगी।’
भाभी ने अपने बहनोई से कहा-‘चलो आप सट्टा नहीं खेलते पर दोस्तों में भी शर्त लगाना ठीक नहीं है।’
वह बोला-‘‘कभी-कभी लगाता हूं। अब वह भी नहीं लगाऊंगा।’

मैं कंप्यूटर वाले कमरे में आ गया तो पीछे भतीजी और भतीजा भी आया। मैंने भतीजी से कहा-‘‘मैं कंप्यूटर पर कुछ लिखूं? अगर तुम्हारा कोई काम हो तो कर लो। एक बार मैंने लिखना शुरू किया तो फिर हाथ रखने नहीं दूंगा। इंटरनेट के आधे पैसे मैं भी भरता हूं।’
भतीजी ने पूछा-‘‘मगर लिखोगे क्या?
मैंने कहा-‘‘छिः भतीजी के मौसा-मौसी क्रिकेट मैच देखते हैं-यही लिखूंगा।

भतीजी कहने लगी-‘इससे क्या मैच ही तो देखते हैं।
मैंने कहा-‘हां, पर शर्त भी लगाते हैं जो होता तो जुआ ही है।’
भतीजी ने कहा-‘मैं मम्मी और पापा को बताती हूं कि आप ऐसा लिख रहे हो।’
मैंने कहा-‘मैं तुम्हारे लिये भी लिख दूंगा कि तुम भी देखती हो।’
वह बोली-‘मैं क्या करती? वह लोग टीवी देख रहे थे। मेहमान हैं! भला क्या मैं चैनल बदलती। कितना बुरा लगता उनको?’

भतीजा बोला-‘चाचा मेरे लिये कुछ मत लिखना। मैं तो सो गया था।’
भतीजी उससे लड़ती बोली-‘झूठे कहीं के। पूरा मैच देख रहा था और अब चाचा लिख रहे हैं तो अपने को बचा रहा है।’

दोनों आपस में ही उलझ गये और मैं लिखने बैठ गया। मैंने उनको यह बात नहीं बताई कि मैं स्वयं भी कल रात मैच देखने के बाद ही ट्रेन से घर के लिए रवाना हुआ था। वरना अभी तक मुझे अपने बारे में सफाई देनी पड़ती कि मैंने कभी क्रिकेट क्यासी भी विषय पर शर्त न लगाने का व्रत नहीं लिया हुआ है जिसे लेने के लिए मुझे अपने स्वर्गीय दादाजी ने प्रेरित किया था।

खुशी हो या गम

अपनी धुन में चला जा रहा था
अपने ही सुर में गा रहा था
उसने कहा
‘तुम बहुत अच्छा गाते हो
शायद जिंदगी में बहुत दर्द
सहते जाते हो
पर यह पुराने फिल्मी गाने
मत गाया करो
क्योंकि इससे तुम्हारे दर्द पर
किसी को रोना नहीं आयेगा
क्यों नहीं नये गाने गाते
शोर सुनकर लोगों के
हृदय में भावनाओं का ज्वार आयेगा
ऐसे ही आंसू बहाने लगेंगे
समझ में कुछ नहीं आयेगा
तुम्हारें अंदर खुशी हो या गम
उसे बेचने का काम शुरू कर दो
क्यों कमाने से हाथ धोये जाते हो

Thursday, October 9, 2008

मांगन ते मरना भला

मांगन ते मरना भला मत कोई मांगो भीख

लगता है कि भीख मांगना भारत में सबसे आसान धंधा है । किसी भी साधारण स्वस्थ सा दिखने वाले व्यक्ती को सिर्फ माथे पर साफानुमा कपडा बांधने और धोती कुर्ता पहनते ही जेसे भीख मांगने का लाईसेंस मिल जाता है । अब कोई भीखारी हरे रंग के वस्त्रों का प्रयोग करे या केसरिया रंग का आखिर वह खेल तो रहा ही होता है हमारी आस्था के साथ ही । धर्म के नाम पर हम सभी रोजाना कितने बेवकूफ बन रहे हैं ।

विश्वास नहीं आता तो अपने शहर में किसी भी दुकान पर जा कर बैठिये कुछ मिनट और देखिये की कितने कम समय में तरह तरह के अलग भेस बनाए भीखारी आ जा रहे होते हैं । जगह जगह भीखारी और भीख का यह धन्धा जेसे इन लोगों के लिए खेल बन चुका है । कोई लाचार या अपंग व्यक्ती अगर कुछ मांग रहा है तो ठीक है पर हट्टे कट्टे और स्वस्थ से दिखने वाले लोग जब भीख मांगते नजर आते हैं तो बडा बुरा लगता है । एसा लगता है अभी इसको दो चार भजन सुना दिए जाए । पर इस से होगा क्या ? कुछ नहीं ।

क्यों कि हम उन को कुछ काम धंधे पर लगा नहीं सकते, पता नहीं कौन हे, कहां से आया है, अपने कहने मात्र से कोई इसको नौकरी पर रख ले और ये उसका माल ले कर चंपत हो जाए तो अपनी तो लग गई ना वाट । इस कारण से ही शायद हम किसी की मदद करने के लिए हाथ नहीं बढ़ाते । शायद कबीर ने लिखा है कि “मांगन ते मरना भला” पर यह बात कोई समझता ही नहीं, कोई वेसे ही खाली पीली दिन के सौ दो सौ रुपये कूट रहा हो तो वह मेहनत का काम क्यों करेगा, यह भी तो सोचने वाली बात है ।

सरकार तो चाहे तो भी इन भिखारियों का कुछ नहीं कर सकती है, रोजगारपरक कार्यशालाएं वगेरह चलाएं तो भी इनको क्या । बसने के लिए छत दे भी दे तो ये अपना भीख का काम नहीं छोड सकते । मंदिर जेसी कई जगहों पर अक्सर भिखारी आने जाने वाले लोगों पर टोंड कसने से भी नहीं चूकते जेसेः “बडे आये सेठ कहीं के, इस पवित्र तीर्थ पर आकर भी धर्म नहीं करे तो ये कहां के सेठ” ।

कोई कोई भिखारी अजीब सा स्वांग बना कर आते हें, और भीख ना देने पर किसी भी दुकानदार या रास्ते चलते व्यक्ती को जोर जोर से गालियां या देने लग जाते हैं इससे इनडाइरेक्टली होता क्या है कि बाजार के दूसरे लोग या दुकानदार सतर्क हो जाते हैं कि यदि इस भिखारी को भीख ना दी तो अपनी दुकान के बाहर भी यह भिखारी एसा ही हंगामा खडा कर देगा, लिहाजा उसे हर जगह से बडी कमाई हो जाती है । यही तरीका हिजडे भी इख्तीयार करते हैं अक्सर । काश भारत में कोई टोल फ्री नंबर होता, जहां फोन करते ही कोई कंपनी या समूह विशेष तत्काल दो मिनट में आते, और इस तरह के भिखारी को साथ ले जाते, और कुछ प्रशिक्षण दे कर कमाने खाने के लायक बना देते ।

इसी तरह से कुछ और भी स्टेन्डर्ड भिखारी समूह भी हो गए हैं जो चन्दे के नाम पर ये कारोबार करते हैं कुछ लोग या समूह मोटे मोटे मुस्टंडों के साथ जाते हैं और चंदे की रसीद फाडने के लिए कहते है, अगर कोई पर्याप्त चंदा ना दे तो उसे संकेत देते हैं कि आपका काम हमारे से ही पडना है और हम भी देख लेंगे वगैरह । तो एसा हाल है हमारे शहरों में …………..

15 बातें जो मुझे कतई पसंद नहीं

15 बातें जो मुझे कतई पसंद नहीं

हर किसी व्यक्ती की कुछ पसंद तो कुछ नापसंद होती है, हमारी भी है कुछ एसी ही, कुछ लोग गलत समय पर गलत बात कर बैठते है, पर उमर व अनुभव में हम छोटे हे और छोटे का कुछ नहीं हो सकता । इस तरह की ही कुछ बातें हैं जो हमें बिलकुल भी पसंद नहीं है । अतिशीघ्र इस लिस्ट में बहुत सारी और भी बाते जुडने वाली है जो हमे अटपटी सी लगती है । 5 बातें जो मुझे कतई पसंद नहीं …..

. तुम कितना कमा लेते हो ?

. और आपके पास क्या क्या है मसलन जमीन, जायदाद, पैसा या कुछ और ?

. ये काम धंधा तो ठीक है, पर भविष्य में और, आपके क्या क्या प्लान्स है ?

. अरे खुल्ले देना, अरे केंची है क्या, चाकु है, पेचकस है क्या, टेप है क्या चिपकाने वाली ?

. आपके खाते किस किस बेंक में हैं ?

. तुम शादी कब कर रहे हो ?

. ईमानदारी से बताओ तुम्हे कौन कौन सी सब्जीयां भाती है ?

. तुम और कुछ शुरु क्यो नहीं करते ?

. तुम किसी बात को समझते क्यों नही ?

0. तुम ये मोटरसाइकिल, मोबाईल फोन अब बदल क्यों नहीं डालते ?

1. तुम्हारी कोई गर्लफफ्रेंड क्यों नहीं है ?

2. तुम्हें बाहर आना जाना, लोगो के बीच उठना बैठना पसंद क्यो नहीं है ?

3. ये यहां के कायदे हैं और इनको हमें मानना ही पडेगा !

4. सत्संग में क्यो नहीं आते ये बुरा थोडी है । 5. भगवान को मानोगे तो क्या तुम घिस जाओगे ।